बहुत सारे देश यातना के मामलों की जाँच करने में विफल: यूएन विशेषज्ञ


यातना और अन्य क्रूर, अमानवीय, या अपमानजनक बर्ताव या सजा पर संयुक्त राष्ट्र की विशेष दूत, एलिस एडवर्ड्स ने कहा, “यातना की जाँच करने का राष्ट्रीय कर्तव्य चिन्ताजनक रूप से, सार्वभौमिक तौर पर कम ही पूरा किया जाता है.”

कार्रवाई का अधिकार अपने हाथ में लें

राष्ट्रीय कार्यवाही के महत्व पर ज़ोर देते हुए उन्होंने कहा, “अन्तरराष्ट्रीय आपराधिक अदालतों और न्यायाधिकरणों में प्रभावशाली वृद्धि और उन संस्थाओं के प्रति हमारी सामूहिक प्रतिबद्धता के बावजूद, वर्तमान में होने वाले यातना अपराधों के पैमाने और दायरे से निपटने की उनकी क्षमता शायद कभी पूरी नहीं पड़ेगी.”

उन्होंने अधिकारियों से “न्याय प्रक्रियाओं का अधिकार अपने हाथ में लेने” और यातना के अपराधों के लिए,  सार्थक जवाबदेही, उपचार एवं सुलह जैसे तरीक़ों  के ज़रिए “घर पर” ही न्याय करने का आग्रह किया.

विशाल अन्तर

रिपोर्ट में संस्थागत, नियामक, राजनैतिक और व्यावहारिक चुनौतियों सहित, यातना के आरोपों की पूर्ण और त्वरित जाँच में बाधा डालने वाली मुख्य बाधाओं पर प्रकाश डाला गया है.

रिपोर्ट में, अत्याचार के आरोपों की जाँच प्रोत्साहित करने के लिए, आशाजनक देश प्रथाओं का भी ज़िक्र किया गया है, जिसमें लगभग 105 देशों द्वारा यातना को एक स्पष्ट आपराधिक अपराध के रूप में मान्यता देने का दस्तावेज़ीकरण भी शामिल है.

विशेष रैपोर्टेयर ने अपनी रिपोर्ट में, यातना को अन्तरराष्ट्रीय तौर पर निषेध करने के वादे और वास्तविकता के बीच “स्पष्ट अन्तर” की ओर इशारा किया.

स्वतंत्र अधिकार विशेषज्ञ ने कहा कि प्रत्येक देश का कर्तव्य है कि वह राष्ट्रीय क़ानून के तहत यातना अपराधों की जाँच करे, संदिग्धों पर मुक़दमा चलाए या उन्हें प्रत्यर्पित करे, और अपराध की गम्भीरता दर्शाने के लिए अपराधियों को जुर्माने के साथ सज़ा सुनाये.

आधिकारिक भूमिका

उन्होंने कहा कि अत्याचार और अन्य दुर्व्यवहार की कम घटनाएँ ही आधिकारिक तौर पर रिपोर्ट की जाती हैं, और जो प्रकाश में आती भी हैं, वो मामले अक्सर ढेर हो जाते हैं या संतोषजनक निष्कर्ष से पहले वापस ले लिए जाते हैं.

यूएन न्यूज़ के साथ एक साक्षात्कार में, यातना पर विशेष रैपोर्टेयर, एलिस जिल एडवर्ड्स.

उन्होंने समझाया, “यातना के अपराध और एक सामान्य अपराध के बीच का अन्तर यह है कि यातना वो अपराध है जो सरकारी अधिकारियों द्वारा या उनकी सक्रिय भागेदारी से किया जाता है. आरोपी व पीड़ित के बीच शक्ति विषमता, कथित पीड़ित को एक अजीब अनिश्चितता की स्थिति में डाल देती है.”

रिपोर्ट में बताया गया है कि कैसे पीड़ितों को अक्सर अपने आरोप वापस लेने के लिए धमकाया जाता है, उन पर घिनौने प्रति-आरोप मढ़ दिए जाते हैं, जिससे उनकी प्रतिष्ठा का हनन होता है या “न्याय” से उनका विश्वास उठ जाता है.

जोखिम अनेक

उन्होंने कहा, “उस दौरान शिकायतकर्ता हिरासत में या उन अधिकारियों के नियंत्रण में हो सकते हैं, जिनके ख़िलाफ़ उन्होंने शिकायत दर्ज की  है. ऐसे में, प्रतिशोध और हिंसा, अधिक यातना या ‘लापता करने’ जैसे  कई वास्तविक ख़तरे हो सकते हैं. जोखिम अनेक हैं.”

उन्होंने देशों से उचित क़दम उठाने का आहवान किया, जिसमें स्वतंत्र जाँच निकायों की स्थापना शामिल है जो यह सुनिश्चित कर सकें कि पीड़ित और उत्तरजीवी पूर्णत: सशक्त हैं और यातना से जुड़ी किसी भी क़ानूनी कार्यवाही में सक्रिय रूप से भाग ले सकते हैं. उन्होंने सभी देशों से शिकायतकर्ताओं के साथ उचित सम्मान का बर्ताव करने और दोबारा जीवन शुरू करने हेतु उचित सुरक्षा उपायों की पेशकश करने का आग्रह किया.

उन्होंने कहा, “सदमे से उबरने के लिए चिकित्सीय सलाह-मशवरा” और दोबारा ज़िन्दगी शुरू करने के लिए विभिन्न साधनों तक शुरुआती पहुँच, न केवल शिकायतकर्ता के मानसिक स्वास्थ्य के हित में है, बल्कि इससे वो अदालती कार्यवाही में भी अधिक विश्वसनीय गवाह बन पाते हैं.”

उन्होंने कहा, “राष्ट्रीय स्तर पर यातना के मुक़दमे चलाना, देश के प्रशासन के लिए ख़तरा नहीं हैं. इसके विपरीत, सरकार की वैधता पर प्रश्न तब खड़ा होता है, जब लोगों पर अत्याचार किया जाता है, अपराधियों की जाँच करने व उन पर मुक़दमा चलाने से इनकार किया जाता है, और यातना देने वालों को सज़ा नहीं मिलती. अत्याचार के अपराध में साथ देने की बजाय, यदि वे वास्तव में सत्य एवं न्याय की रक्षा करें, तो देश की वैधता बढ़ जाएगी.”

विशेष रैपोर्टेयर और स्वतंत्र विशेषज्ञ अपनी व्यक्तिगत क्षमता में काम करते हैं. वे संयुक्त राष्ट्र के कर्मचारी नहीं होते, और उन्हें उनके काम के लिये कोई वेतन नहीं मिलता है.



From संयुक्त राष्ट्र समाचार

Anshu Sharma

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