मानवाधिकार कार्यालय की शीर्ष अधिकारी ने मंगलवार को जिनीवा में मानवाधिकार परिषद को सम्बोधित करते हुए यह बात कही है.
मिशेल बाशेलेट ने कहा कि सार्वजनिक विश्वास की पुर्नबहाली अति-आवश्यक है, चूँकि ग़लत जानकारी व झूठ के प्रसार को व्यवस्थागत असमानता जैसी बीमारी के एक लक्षण के रूप में देखा जाना चाहिये.
उनका मानना है कि इससे गहराई तक समाया हुआ भेदभाव पोषित होता है, संस्थाएँ कमज़ोर होती हैं, कारगर शासन व्यवस्था में भरोसा दरकता है और क़ानून का राज सीमित होता जाता है.
यूएन एजेंसी प्रमुख के अनुसार विषमताओं से त्रस्त देशों में अब अस्थिरता का ख़तरा है और समाज में सह-अस्तित्व के लिये जोखिम पनप रहा है.
“जानबूझकर फैलाई गई ग़लत जानकारी तब पोषित होती है, जब लोगों को महसूस होता है कि उनकी आवाज़ नहीं सुनी गई है. यह राजनैतिक मोहभंग होने, आर्थिक विसंगति और बढ़ते सामाजिक असन्तोष के सन्दर्भ में उभरती है.”
उच्चायुक्त बाशेलेट ने ज़ोर देकर कहा कि यह तब पनपती है जब नागरिक समाज, पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता और वैज्ञानिक मुक्त रूप से ना तो कामकाज कर सकते हैं, ना एकत्र हो सकते हैं और ना ही अपनी बात सामने रख सकते हैं.
“जब नागरिक समाज के लिये स्थान सीमित या बन्द हो. जब अभिव्यक्ति की आज़ादी और जानकारी की सुलभता के मानवाधिकार के लिये ख़तरा हो.”
मिशेल बाशेलेट ने आगाह किया कि सरकारों और सार्वजनिक अधिकारियों द्वारा इसे हवा मिल सकती है, जोकि फिर नफ़रत से प्रेरित अपराधों व हिंसा के रूप में नज़र आते हैं.
यूएन मानवाधिकार उच्चायुक्त ने चेतावनी भरे अन्दाज़ में कहा कि सरकारों को सच और झूठ को आधिकारिक रूप से तय करने से बचना होगा.
उन्होंने बताया कि सूचना की सुलभता और उसे प्रदान करने का मानवाधिकार, केवल वहीं तक सीमित नहीं है, जिसे राज्यसत्ता सटीक मानती हो.
टैक्नॉलॉजी और चुनौतियाँ
उन्होंने कहा कि टैक्नॉलॉजी से समुदायों में जिस तरह से बदलाव आ रहे हैं, उन पर ध्यान केन्द्रित किया जाना होगा, और यह स्पष्ट करना होगा कि कौन किसके लिये ज़िम्मेदार है.
“हमें यह देखने की ज़रूरत है कि ग़लत जानकारी के फैलने से होने वाले नुक़सान को किस तरह रोका जाए, और साथ ही झूठी सूचना को जीवन प्रदान करने वाले और फैलाने में सहायक बुनियादी कारणों से निपटा जाए.”
मानवाधिकार उच्चायुक्त के मुताबिक़, जिस गति से और जिस मात्रा में ऑनलाइन माध्यमों पर सूचना का प्रसार हो रहा है, उसका अर्थ है कि इसे आसानी से तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है.
उन्होंने कहा कि स्वचालित औज़ारों के ज़रिये कुछ विशिष्ट विचारों के समर्थन या विरोध में वृहद जनमानस का झूठा माहौल तैयार किया ज सकता है, या फिर असन्तुष्ट व मुखर स्वरों का विरोध या फिर उन्हें हाशिये पर धकेला जा सकता है.
यूएन एजेंसी की शीर्ष अधिकारी ने बताया कि संगठित रूप से ग़लत जानकारी फैलाए जाने के अभियान का इस्तेमाल, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और अल्पसंख्यकों की आवाज़ों को दबाने के लिये किया जा रहा है.
“बार-बार होने वाले इन हमलों के परिणामस्वरूप, महिलाएँ, अल्पसंख्यक समुदाय व अन्य सार्वजनिक जीवन में भागीदारी से पीछे हट सकते हैं.”
झूठी जानकारी के प्रसार से मुक़ाबला
इस क्रम में, उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जवाबी कार्रवाई को, सार्वभौमिक मानवाधिकार दायित्वों के अनुरूप बनाए जाने का आग्रह किया है.
उन्होंने सदस्य देशों से अपने अन्तरराष्ट्रीय दायित्वों का निर्वहन किये जाने का आग्रह किया है, ताकि इन अधिकारों की रक्षा व उन्हें बढ़ावा दिया जाए, और बहुलवादी नागरिक समाज सुनिश्चित किया जा सके.
मिशेल बाशेलेट ने स्वतंत्र पत्रकारिता, मीडिया में बहुलवाद, डिजिटल साक्षरता को समर्थन देने वाली नीतियों की पैरवी की है, जिनसे नागरिकों को ऑनलाइन जगत का लाभ उठाने में मदद मिलेगी.
सोशल मीडिया का नियामन
मानवाधिकार मामलों की प्रमुख ने ध्यान दिलाया कि सोशल मीडिया व्यवसायों ने, सूचना के आदान-प्रदान को पूरी तरह पलट कर रख दिया है, और उनकी एक स्पष्ट भूमिका है.
“शुरुआत करते हुए, हमें यह समझना होगा कि वे किस तरह हमारी राष्ट्रीय व वैश्विक चर्चाओं को प्रभावित करते हैं. वैसे तो सोशल मीडिया मंचों ने अपनी पारदर्शिता बढ़ाने और चैनलों में सुधार के लिये स्वागतयोग्य क़दम उठाए हैं, मगर उनकी प्रगति अब भी अपर्याप्त है.”
मानवाधिकार प्रमुख ने सोशल मीडिया कम्पनियों की सेवाओं व कामकाज की स्वतंत्र रूप से समीक्षा किये जाने का आग्रह किया, जिसके तहत विज्ञापन सम्बन्धी और निजी डेटा का इस्तेमाल किये जाने पर अधिक स्पष्टता प्रदान की जानी होगी.
महत्वपूर्ण उपाय
मिशेल बाशेलेट ने मानवाधिकार परिषद से आग्रह किया है कि जानबूझकर ग़लत या झूठी जानकारी फैलाए जाने की बढ़ती समस्या से निपटने के लिये, दो अहम आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाना होगा.
पहला, “हमें अपनी समझ व ज्ञान में गहराई लाने की ज़रूरत है.”
इसके लिये, डिजिटल जगत से मीडिया व सूचना के आदान-प्रदान में आए रूपान्तरकारी बदलावों को बेहतर ढंग से समझना, इस माहौल में सार्वजनिक विश्वास के निर्माण के सर्वोत्तम उपायों को पहचानना होगा और यह भी कि इस चुनौती से मुक़ाबले में विभिन्न हितधारक अपनी भूमिका किस प्रकार से निभा सकते हैं.
दूसरा, “सभी चर्चाओं को मानवाधिकार मानकों के अन्तर्गत ही आगे बढ़ाया जाना होगा.”
उन्होंने कहा कि छोटे, जल्दबाज़ी में अपनाए गए उपाय यहाँ कारगर नहीं होंगे और सेंसरशिप व व्यापक सामग्री को हटाने के क़दम बेअसर व ख़तरनाक हो सकते हैं.