भारत के व्यावसायिक शहर मुम्बई से लगभग 100 किलोमीटर दूर, अम्बावाड़ी ग्राम पंचायत की संकरी गलियों में, लहराते पर्दों के पीछे पेंटिंग करती महिलाएँ आम दिख जाती हैं. समूहों में फ़र्श पर बैठकर आकृतियाँ बनाती हुईं – त्रिकोण, वृत्त, वर्ग और सीधी रेखाएँ खींचतीं – वो भी इतनी सटीकता के साथ कि जैसे रेखागणित का कोई पाठ हो. दरअसल वो लगभग एक हज़ार साल पुरानी आदिवासी वरली कला का अभ्यास करती हैं.
माना जाता है कि महाराष्ट्र और गुजरात की सीमा के क्षेत्र के नाम पर आधारित, वरली पेंटिंग की उत्पत्ति 10वीं शताब्दी में हुई थी. परम्परागत रूप से, महिलाएँ अपने मिट्टी के लाल घरों को रोज़मर्रा के जीवन व प्रकृति के दृश्यों से सजाने के लिए, चावल की लुगदी का उपयोग करती थीं.
अपने एक कमरे के घर के एक कोने में, एक बड़ी खिड़की के बगल में बैठीं, 33 वर्षीय आंगनवाड़ी शिक्षिका, सिद्धी सुरेंद्र जाधव, पेंटिंग का सामान लेकर, एक चमकीली मेज़ के सामने पालथी मारकर बैठी हुई हैं. वह सफ़ेद पेंट में ब्रश डुबोकर, एकाग्रता से लाल चीनी मिट्टी के प्यालों पर चित्र उकेरती हैं.

यूएनडीपी और लार्सन एंड ट्यूब्रो इन्फ़ोटेक, इस स्वदेशी महिला कला को बढ़ावा देकर, मुम्बई और ठाणे के बाहरी इलाक़ों में बसे आदिवासी व अन्य कमज़ोर समुदायों की वंचित महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए, एक पहल का नेतृत्व कर रहे हैं. महिला कारीगर कौशल संवर्धन परियोजना (WASEP) के तहत, महिलाओं को वरली कला में प्रशिक्षित किया गया और उन्हें अपने दस्तकारी उत्पादों को बेचने के लिए मंच प्रदान किया गया.
महामारी में अवसर
महिलाओं, मुख्य रूप से गृहिणियों को उद्यमिता और विपणन का प्रशिक्षण भी दिया गया. WASEP 2017 में शुरू की गई थी, लेकिन जाधव और उनकी पड़ोसिनों को इसकी जानकारी कोविड-19 महामारी शुरू होने पर हुई. आशंकाओं के साथ ही सही, लेकिन वे इसमें तुरन्त शामिल हो गईं. वह बताती हैं, “हम इसके बारे में न तो जानकारी थी, न ही इस पर कुछ ख़ास यक़ीन.”
भारतीय अर्थव्यवस्था निगरानी केन्द्र के अनुमान के मुताबिक़, कोविड-19 तालाबन्दी के दौरान, करोड़ से अधिक भारतीय लोगों का रोज़गार चला गया था. सबसे ज़्यादा मार दिहाड़ी पर काम करने वाले कर्मचारियों पर पड़ी.
जाधव के पति भी कमीशन पर काम करते थे और तालाबन्दी के दौरान उनकी आमदनी बन्द हो गई. जाधव की छोटी सी पगार पर पूरा परिवार निर्भर था और गुज़र-बसर के ख़र्चे थे कि बढ़ते ही जा रहे थे. वो बताती हैं, “हमें बच्चों की स्कूल फ़ीस का भुगतान करना पड़ता था और उनकी ऑनलाइन कक्षाओं के लिए नियमित रूप से मोबाइल फ़ोन री-चार्ज कराना पड़ता था.”

इस पहल में शामिल होने वाली अधिकांश महिलाओं ने पहले कभी वरली कला का अभ्यास नहीं किया था. 35 वर्षीय नूतन नितिन बोयर कहती हैं, “मैंने कभी नहीं सोचा था कि एक पारम्परिक कला, जिसके बारे में मैंने केवल सुना था, मुझे आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाने में मदद कर सकती है.”
30 वर्षीया स्वरा सचिन यादव कहती हैं, “कामकाजी महिला होने का मेरा सपना WASEP के कारण पूरा हुआ.” इससे उन्होंने कुछ ऐसा ख़रीदने के लिए बचत की “जिसे वो जीवन भर याद रख सकें.” फिर उन्होंने अपनी पहली आमदनी से एक साड़ी ख़रीदी. वह कहती हैं, ”किसी से पैसे मांगे बिना अपनी इच्छा पूरी करने पर मुझे बहुत सन्तुष्टि मिली.”
आय में वृद्धि
औसतन, हर महीने महिलाएँ लगभग 1,200 रुपए ($15) से 12 हज़ार रूपए ($150) तक की आय अर्जित कर लेती हैं. सरकारी अनुमानों के अनुसार, हस्तकला क्षेत्र में 50 लाख से अधिक महिलाएँ काम करती हैं. छोटे उद्यम न्यूनतम निवेश के साथ स्थापित किए जा सकते हैं, काम आसानी से किया जा सकता है और अनेक मामलों में काम घर पर ही करना सम्भव होता है.
WASEP इस क्षमता का दोहन करने में सक्षम रहा है. जाधव, जो प्रति माह डेढ़ हज़ार से दो हज़ार रुपए ($19-25) के बीच कमा लेती हैं, अब इसका विस्तार करने की योजना बना रही हैं: विशेष वरली कपड़ों की श्रृंखला.
वो हँसते हुए बताती हैं, “शुरुआत में, जब मैं वरली कपड़ों के लिए ऑनलाइन खोज करती थी, तो मुझे हमेशा लगता था कि यह बहुत महंगे हैं, लेकिन अब जब मैं इसे बना रही हूँ, तो समझ आता है कि क़ीमत उचित है. इसे बनाने में कड़ी मेहनत और कुशलता लगती है.

एक महीना चले प्रशिक्षण में, महिलाओं को 25 के बैचों में प्रशिक्षित किया गया. सबसे पहले कपड़े के मुखौटे पर काम सिखाया गया और फिर अन्य वस्तुओं पर काम शुरू किया गया: कप, नोटबुक, थैले, आभूषण, साड़ी…यहाँ तक कि मुम्बई के प्रतिष्ठित क्रिकेट मैदान शिवाजी पार्क की एक दीवार पर भी.
वरली कला की आकृतियाँ प्रकृति की शक्तियों को दर्शाती हैं. वृत्त सूर्य और चन्द्रमा का प्रतिनिधित्व करते हैं, त्रिकोण पहाड़ और पेड़ हैं, साथ ही सीधी आकृतियों के संयोजन के उपयोग से विभिन्न तस्वीरें बनाई जाती हैं. चित्रों में व्यक्तियों को अक्सर तिरछी रेखाएँ खींचकर दर्शाया जाता है क्योंकि वे आमतौर पर चलायमान होते हैं – नृत्य करते हुए, काम करते हुए, रोज़मर्रा के कार्यों और अनुष्ठानों में लगे हुए.
जाधव बताती हैं, “शुरुआत में, हमारे हाथ काँपते थे और हम जिस तरह की आकृतियाँ बना रहे थे, उन्हें देखकर हमें ख़ुद पर ही हँसी आ जाती थी.”
इस परियोजना के ज़रिए अब तक 2,500 महिलाओं को प्रशिक्षित किया जा चुका है. उनमें से अनेक ने बताया है कि इससे उनके आत्मविश्वास में वृद्धि हुई है और अपने-आप को देखने के उनके नज़रिए में बड़ा बदलाव आया है.