अनेक आदिवासी जन, पृथ्वी व जीवन के सभी रूपों का गहरा सम्मान करते है और उनका मानना है कि पृथ्वी के स्वास्थ्य में ही मानव जाति की भलाई है.
संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में 17 से 28 अप्रैल तक आयोजित हो रहा यह दस-दिवसीय फ़ोरम, आदिवासी लोगों के लिए एक ऐसा मंच है जहाँ उनके आर्थिक व सामाजिक विकास, संस्कृति, पर्यावरण, शिक्षा, स्वास्थ्य और मानवाधिकारों समेत अन्य मुद्दों पर चर्चा होगी.
‘यूएन की स्थाई फ़ोरम’ के 2023 सत्र के अवसर पर, यूएन न्यूज़ ने कोलम्बिया में ज़ेनु समुदाय के एक आदिवासी सदस्य और यूएन स्थाई फ़ोरम के प्रमुख, डारियो मेजिया मोन्ताल्वो से एक ख़ास बातचीत की.

यूएन न्यूज़: आदिवासी मुद्दों पर यूएन का स्थाई फ़ोरम क्या है और यह क्यों महत्वपूर्ण है?
डारियो मेजिया मोन्ताल्वो: हमें सबसे पहले संयुक्त राष्ट्र के बारे में बात करनी होगी. यूएन सदस्य देशों से मिलकर बना है जिसमें से अधिकतर देशों का जन्म हुए अभी 200 साल भी पूरे नहीं हो पाए हैं.
इनमें से कई सदस्य देशों नें अपनी सीमाओं और क़ानूनी प्रणालियों को उन लोगों पर थोपा है, जो इन राज्यसत्ताओं के गठन से बहुत पहले से वहाँ रह रहे थे.
संयुक्त राष्ट्र का गठन इन लोगों को ध्यान में रखे बिना ही किया गया. ये वो लोग हैं जिनका मानना है कि उन्हें अपने जीवन जीने के तौर-तरीक़ों, सरकार, क्षेत्रों और संस्कृतियों को बनाए रखने का अधिकार है.
इस स्थायी फ़ोरम का सृजन, संयुक्त राष्ट्र प्रणाली में लोगों का विशालतम समागम है, जहाँ केवल आदिवासी लोगों को नहीं बल्कि पूरी मानवता को प्रभावित करने वाले वैश्विक मुद्दों पर चर्चा होती है. यह इन लोगों की एक ऐतिहासिक उपलब्धि है, जो यूएन की स्थापना के समय बाहर छूट गए थे.
ये उन्हें एक ऐसा मंच प्रदान करता है जहाँ उनकी बात सुनी जाती है, लेकिन अभी भी एक लम्बा सफ़र तय किया जाना बाक़ी है.
यूएन न्यूज़: इस बार फ़ोरम में पृथ्वी ग्रह व मानव स्वास्थ्य सम्बन्धी मुद्दों पर ध्यान क्यों केन्द्रित किया गया है?
डारियो मेजिया मोन्ताल्वो: कोविड-19 की वजह से लोगों की ज़िन्दगियों में भीषण उथलपुथल हुई, लेकिन इसी दौरान पृथ्वी को वैश्विक प्रदूषण से राहत भी मिली.
संयुक्त राष्ट्र केवल सदस्य देशों के नज़रिए से बना था. आदिवासी लोगों का सुझाव है कि हम विज्ञान, अर्थशास्त्र और राजनीति से परे जाकर, इस ग्रह को माँ पृथ्वी के रूप में सोचें.
सदियों से सहेज कर रखा गया हमारा पारम्परिक ज्ञान, मान्य है, महत्वपूर्ण है और इसमें जलवायु संकट से निपटने के लिए अनेक समाधान निहित हैं.

यूएन न्यूज़: आदिवासी लोगों के पास पृथ्वी का स्वास्थ्य सुधारने के क्या निदान है?
डारियो मेजिया मोन्ताल्वो: विश्व में पाँच हज़ार से अधिक आदिवासी लोग हैं, जिनमें से हर एक का अपना वैश्विक नज़रिया है, स्थिति का आकलन करने की अपनी समझ और समाधान हैं.
मेरा विचार है कि आदिवासी लोग जो कुछ साझा करते हैं, वो है भूमि के साथ उनका रिश्ता. समरसता व सन्तुलन के बुनियादी सिद्धान्त, जहाँ अधिकारों के प्रति विचार केवल मनुष्यों के इर्दगिर्द नहीं घूमते, बल्कि प्रकृति पर आधारित होते हैं.
ऐसे बहुत से निदान हैं जिनमें ये समानताएँ हो सकती हैं, और जो पश्चिमी विज्ञान के निदानों के पूरक हो सकते हैं. हम यह नहीं कह रहे हैं कि एक प्रकार का ज्ञान दूसरे से बेहतर है. हमें सभी को मान्यता देनी होगी और बराबरी के साथ, एकजुट होकर काम करना होगा.
यह आदिवासी लोगों का दृष्टिकोण है. यह नैतिक या बौद्धिक श्रेष्ठता की बात नहीं है, बल्कि रचनात्मक सहयोग, सम्वाद, और आपसी समझ व पहचान की सोच है. इस तरह से, आदिवासी लोग जलवायु संकट के विरुद्ध लड़ाई में अपना योगदान दे सकते हैं.

यूएन न्यूज़: जब आदिवासी नेता अपने अधिकारों का बचाव करते हैं, विशेष रूप से पर्यावरणीय अधिकारों से जुड़े मामलों में, तो उन्हें उत्पीड़न, हत्याओं और धमकियों का सामना करना पड़ता है.
डारियो मेजिया मोन्ताल्वो: ये वास्तव में हॉलोकॉस्ट हैं, ऐसी त्रासदियाँ जो बहुत से लोगों को दिखाई नहीं देती हैं.
मानव जाति ने यह मान लिया है कि प्राकृतिक संसाधन, असीमित हैं और वे हमेशा सस्ते होते जाएंगे. माँ पृथ्वी के संसाधनों को केवल एक वस्तु के रूप में देखा जाता है.
आदिवासी लोगों ने हजारों वर्षों से कृषि और खनन क्षेत्रों के विस्तार का विरोध किया है.वे हर दिन अपने क्षेत्रों की खनन कम्पनियों से रक्षा करते हैं, जो वहाँ तेल, कोयला और अन्य संसाधनों का दोहन करना चाहती हैं. ये संसाधन अनेक आदिवासी लोगों के लिए पृथ्वी का मूल आधार हैं.
अनेक लोग मानते है कि हमें प्रकृति के साथ मुक़ाबला करना है और उस पर अपना दबदबा स्थापित करना है. क़ानूनी या ग़ैरक़ानूनी कम्पनियों के ज़रिये, या फिर तथाकथित हरित बॉन्ड और कार्बन बाज़ार के माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों को नियंत्रित करने की इच्छा, औपनिवेशवाद का ही एक रूप है, जिसमें आदिवासी लोगों को हीन और असमर्थ समझा जाता है. इसके परिणामस्वरूप, उनके उत्पीड़न और विनाश को सही ठहराया जाता है.
कई सदस्य देश अभी भी आदिवासी लोगों के अस्तित्व को मान्यता नहीं देते हैं, और जब उनको मान्यता दी भी जाती है तो उनके लिए गरिमामय जीवन सुनिश्चित करने पर लक्षित ठोस योजनाओं को बढ़ावा देने में बड़ी कठिनाइयाँ का सामना करना पड़ता है.

यूएन न्यूज़: आदिवासी मुद्दों पर यूएन के स्थाई फ़ोरम के इस वार्षिक सत्र से आपकी क्या उम्मीदें हैं?
डारियो मेजिया मोन्ताल्वो: हमारा उत्तर हमेशा से एक ही रहा है: हमारी बात को समान स्तर पर सुना जाए और वैश्विक मंच पर विचार-विमर्श में हमारे योगदान को मान्यता मिले.
हमें उम्मीद है कि सदस्य देश, कुछ और सम्वेदनशीलता व विनम्रता के साथ यह समझेंगे कि समाजों के रूप में, हम सही मार्ग पर अग्रसर नहीं हैं, और यह कि मौजूदा संकट से निपटने के लिए अब तक जो भी समाधान प्रदान किए गए हैं, वो पर्याप्त नहीं हैं.
संयुक्त राष्ट्र, वैश्विक बहस और चर्चा का केन्द्र है और यहाँ आदिवासी संस्कृतियों को भी शामिल किया जाना चाहिए.